Monday, 21 September 2020

◆मानव स्वास्थ्य◆

                           ◆मानव स्वास्थ्य◆

               विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) के अनुसार स्वास्थ्य या आरोग्य की परिभाषा इस प्रकार है।

शारिरिक मानसिक और सामाजिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ (समस्या-विहीन) होना स्वास्थ्य है ।।

समग्र स्वास्थ्य की परिभाषा
                           विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, स्वास्थ्य सिर्फ रोग या दुर्बलता की अनुपस्थिति ही नहीं बल्कि एक पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक खुशहाली की स्थिति है। रोग की अनुपस्थिति एक वांछनीय स्थिति है लेकिन यह स्वास्थ्य को पूर्णतया परिभाषित नहीं करता है। यह स्वास्थ्य के लिए एक कसौटी नहीं है और इसे अकेले स्वास्थ्य निर्माण के लिए पर्याप्त भी नहीं माना जा सकता है। लेकिन स्वस्थ होने का वास्तविक अर्थ अपने आप पर ध्यान केंद्रित करते हुए जीवन जीने के स्वस्थ तरीकों को अपनाया जाना है। स्वस्थ लोग रोजमर्रा की गतिविधियों से निपटने के लिए और किसी भी परिवेश के मुताबिक अपना अनुकूलन करने में सक्षम होते हैं। 

                   साथ ही सिर्फ शारीरिक फिटनेस ही स्वस्थ होने का एकमात्र आधार नहीं है , स्वस्थ होने का मतलब मानसिक और भावनात्मक रूप से फिट होना है।
स्वस्थ रहना आपकी समग्र जीवन शैली का हिस्सा होना चाहिए। एक स्वस्थ जीवन शैली जीने से पुरानी बीमारियों और दीर्घकालिक बीमारियों को रोकने में मदद मिल सकती है। अपने बारे में अच्छा महसूस करना और अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखना आपके आत्म-सम्मान और आत्म-छवि के लिए महत्वपूर्ण है। अपने शरीर के लिए जो सही है उसे करके स्वस्थ जीवनशैली बनाए रखें ।

                      इस प्रकार स्वास्थ्य के आयाम अलग अलग टुकड़ों की तरह है। अतः अगर हम अपने जीवन को कोई अर्थ प्रदान करना चाहते है तो हमें स्वास्थ्य के इन विभिन्न आयामों को एक साथ फिट करना पड़ेगा। अच्छे स्वास्थ्य की कल्पना समग्र स्वास्थ्य का नाम है जिसमें अन्तर्गत शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य , बौद्धिक स्वास्थ्य, आध्यात्मिक स्वास्थ्य और सामाजिक स्वास्थ्य शामिल है।

★ 1. शारीरिक स्वास्थ्य =
                 शारीरिक स्वास्थ्य शरीर की स्थिति को दर्शाता है जिसमें इसकी संरचना, विकास, कार्यप्रणाली और रखरखाव शामिल होता है। यह एक व्यक्ति का सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए एक सामान्य स्थिति है। यह एक जीव के कार्यात्मक और/या चयापचय क्षमता का एक स्तर भी है। 
अच्छे शारीरिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के निम्नलिखित कुछ तरीके हैं-
1 संतुलित आहार की आदतें, मीठी श्वास व गहरी नींद ,बड़ी आंत की नियमित गतिविधि व संतुलित शारीरिक गतिविधियां , नाड़ी स्पंदन, रक्तदाब, शरीर का भार व व्यायाम , सहनशीलता आदि सब कुछ व्यक्ति के आकार, आयु व लिंग के लिए सामान्य मानकों के अनुसार होना चाहिए।

2 शरीर के सभी अंग सामान्य आकार के हों तथा उचित रूप से कार्य कर रहे हों।

3 पाचन शक्ति सामान्य एवं सक्षम हो।

4 साफ एवं कोमल स्वच्छ त्वचा हो।

5 आंख नाक, कान, जिव्हा, आदि ज्ञानेन्द्रियाँ स्वस्थ हो।

6 जिव्हा स्वस्थ एवं निर्मल हो दांत साफ सुथरें हो मुंह से दुर्गंध न आती हो।

7 समय पर भूख लगती हो।

8 शारीरिक चेष्टा सम प्रमाण में हो जिसका मेरुदण्ड सीधा हो चेहर पर कांति ओज तेज हो कर्मेन्द्रिय (हाथ पांव आदि) स्वस्थ हों।

9 मल विसर्जन सम्यक् मात्रा में समय पर होता हो।

10 शरीर की उंचाई के हिसाब से वजन हो।

11 शारीरिक संगठन सुदृढ़ एवं लचीला हो।

★ 2. मानसिक स्वास्थ्य=
मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ हमारे भावनात्मक और आध्यात्मिक लचीलेपन से है जो हमें अपने जीवन में दर्द, निराशा और उदासी की स्थितियों में जीवित रहने के लिए सक्षम बनाती है। मानसिक स्वास्थ्य हमारी भावनाओं को व्यक्त करने और जीवन की ढ़ेर सारी माँगों के प्रति अनुकूलन की क्षमता है। 
इसे अच्छा बनाए रखने के निम्नलिखित कुछ तरीके हैं-
1 प्रसन्नता, शांति व व्यवहार में प्रफुल्लता आत्म-संतुष्टि हो (आत्म-भर्त्सना या आत्म-दया की स्थिति न हो) ।

2 भीतर ही भीतर कोई भावात्मक संघर्ष न हो (सदैव स्वयं से युद्धरत होने का भाव न हो।)

3 मन की संतुलित अवस्था हो डर, क्रोध, इर्ष्या, का अभाव हो मनसिक तनाव एवं अवसाद ना हो।

4 वाणी में संयम और मधुरता हो कुशल व्यवहारी हो।

5 स्वार्थी ना हों

6 संतोषी जीवन की प्रवृति का वाला हो।

7 परोपकार एवं समाज सेवी की भावना वाला हो जीव मात्र के प्रति दया की भावना वाला हो।

8 परिस्थितियों के साथ संघर्ष करने की सहनशक्ति वाला तथा विकट परिस्थितियों में सांमजस्य बढाने वाला हो।

★ 3. बौद्धिक स्वास्थ्य=
                          यह किसी के भी जीवन को बढ़ाने के लिए कौशल और ज्ञान को विकसित करने के लिए संज्ञानात्मक क्षमता है। हमारी बौद्धिक क्षमता हमारी रचनात्मकता को प्रोत्साहित और हमारे निर्णय लेने की क्षमता में सुधार करने में मदद करता है।
अच्छे बौद्धिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के निम्नलिखित कुछ तरीके हैं-
(1) समायोजन करने वाली बुद्धि, आलोचना को स्वीकार कर सके व आसानी से व्यथित न हो।

(2) दूसरों की भावात्मक आवश्यकताओं की समझ, सभी प्रकार के व्यवहारों में शिष्ट रहना व दूसरों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखना ।

(3) नए विचारों के लिए खुलापन, उच्च भावात्मक बुद्धि हो।

(4) आत्म-संयम, भय, क्रोध, मोह, जलन, अपराधबोध या चिंता के वश में न हो। लोभ के वश में न हो ।

(5) समस्याओं का सामना करने व उनका बौद्धिक समाधान तलाशने में निपुण हो ।

★ 4. आध्यात्मिक स्वास्थ्य=
                          हमारा अच्छा स्वास्थ्य आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ हुए बिना अधूरा है। जीवन के अर्थ और उद्देश्य की तलाश करना हमें आध्यात्मिक बनाता है। आध्यात्मिक स्वास्थ्य हमारे निजी मान्यताओं और मूल्यों को दर्शाता है। अच्छे आध्यात्मिक स्वास्थ्य को प्राप्त करने का कोई निर्धारित तरीका नहीं है। यह हमारे अस्तित्व की समझ के बारे में अपने अंदर गहराई से देखने का एक तरीका है।

अष्टादशेषु पुराणेषु व्यासस्य वचन द्वयं ।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम्॥

अर्थात= अट्ठारह पुराणों में महर्षि व्यास ने दो बातें कहीं हैं - परोपकार से पुण्य मिलता है और दूसरों को पीड़ा देने से पाप।
अच्छे आध्यात्मिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के निम्नलिखित कुछ तरीके हैं-
1 प्राणी मात्र के कल्याण की भावना हो , "सर्वे भवन्तु सुखिनः" (सभी सुखी हों) का आचरण हो।

2 तन, मन, एवं धन की शुद्वता वाला हो।

3 परस्पर सहानुभूति वाला हो , परोपकार एवं लोककल्याण की भावना वाला हो।

4 प्रतिबद्वता, कर्त्तव्यपालन वाला हो , कथनी एवं करनी में अन्तर न हो ।

5 श्रेष्ठ चरित्रवान व्यक्तित्त्व हो , इन्द्रियों को संयम में रखने वाला हो।

6 योग एवं प्राणायाम का अम्यासी हो , पुण्य कार्यो के द्वारा आत्मिक उत्थान वाला हो , सकारात्मक जीवन शैली जीने वाला हो।


7 अपने शरीर सहित इस भौतिक जगत की किसी भी वस्तु से मोह न रखना , दूसरी आत्माओं के प्रभाव में आए बिना उनसे भाईचारे का नाता रखना।

8 समुचित ज्ञान की प्राप्ति की सतत इच्छा ।

★ 5. सामाजिक स्वास्थ्य=
                       चूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं अतः संतोषजनक रिश्ते का निर्माण करना और उसे बनाए रखना हमें स्वाभाविक रूप से आता है। सामाजिक रूप से सबके द्वारा स्वीकार किया जाना हमारे भावनात्मक खुशहाली के लिए अच्छी तरह जुड़ा हुआ है ।
अच्छे सामाजिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के निम्नलिखित कुछ तरीके हैं-
1 समाज अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहमचर्य एवं अपरिग्रही स्वभाव वाला हो।

2 प्रदूषणमुक्त वातावरण हो , वृक्षारोपण का अधिकाधिक कार्य हो , शुद्व पेयजल एवं पानी की टंकियों का प्रबंध हो।

3 मल-मूत्र एवं अपशिष्ट पदार्थों के निकासी की योजना हो , सुलभ शैचालय हो , सार्वजनिक स्थलों पर पूर्ण स्वच्छता हो।

4 जनसंख्यानुसार पर्याप्त चिकित्सालय हों , संक्रमण-रोधी व्यवस्था हो।

5 भय एवं भ्रममुक्त समाज हो , मानव कल्याण के हितों का समाज वाला हो , अपनी व्यक्तिगत क्षमता के अनुसार समाज के कल्याण के लिए कार्य करना।

6 खाद्य सामग्री की जनसंख्या के अनुपात में उपलब्धता हो , मौसमी फल एवं सब्जियों की उपलब्धता हो , खान-पान की सामाजिक पद्वतियाँ

7 समाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन में स्वास्थ्य सम्बन्धी जागरण की स्थिति , जनंसख्या वृद्वि का समुचित नियंत्रण हो ।

8 उचित शिक्षा की व्यवस्था हो , पोषण संबधी स्वास्थ्य-शिक्षा का प्रचार प्रसार

9 समुदाय का आर्थिक स्तर , समुदाय का शैक्षिणिक स्तर ,समुदाय की चिकित्सकीय व्यवस्था , समुदाय हेतु परिवहन व्यवस्था

10 बच्चों एवं महिलाओं से संबधित विशेष स्वास्थ्य की नीतियाँ , पोषण व्यवस्था एवं आहार के समुचित भंडारण की व्यवस्था

11 सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं मनौवैज्ञानिक स्तर
सामाजिक रीति रिवाज एवं परम्परागत मान्यताएँ , अंधविश्वास एवं गलत धारणाओं से मुक्त समाज हो ।

                  अधिकांश लोग अच्छे स्वास्थ्य के महत्त्व को नहीं समझते हैं और अगर समझते भी हैं तो वे अभी तक इसकी उपेक्षा कर रहे हैं। हम जब भी स्वास्थ्य की बात करते हैं तो हमारा ध्यान शारीरिक स्वास्थ्य तक ही सीमित रहता है। हम बाकी आयामों के बारे में नहीं सोचते हैं। अच्छे स्वास्थ्य की आवश्यकता हम सबको है। यह किसी एक विशेष धर्म, जाति, संप्रदाय या लिंग तक सीमित नहीं है। अतः हमें इस आवश्यक वस्तु के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। अधिकांश रोगों का मूल हमारे मन में होता है। एक व्यक्ति को स्वस्थ तब कहा जाता है जब उसका शरीर स्वस्थ और मन साफ और शांत हो। 

 आयुर्वेद में स्वास्थ्य (स्वस्थ व्यक्ति) की परिभाषा इस प्रकार बताई है-
          ◆ समदोषाः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
              प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते॥ 
                   अर्थात्‌ =जिसके तीनों दोष (वात, पित्त एवं कफ) समान हों, जठराग्नि सम (न अधिक तीव्र,न अति मन्द) हो, शरीर को धारण करने वाली सात धातुएं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य) उचित अनुपात में हों, मल-मूत्र की क्रियाएं  भली प्रकार होती हों और दसों इन्द्रियां (आंख, कान, नाक, त्वचा, रसना, हाथ, पैर, जिह्वा, गुदा और उपस्थ), मन और सबकी स्वामी आत्मा भी प्रसन्न हो, तो ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाता है।

आचार्य चरक के अनुसार स्वास्थ्य की परिभाषा-
       ◆  सममांसप्रमाणस्तु समसंहननो नरः।
        दृढेन्द्रियो विकाराणां न बलेनाभिभूयते॥
        क्षुत्पिपासातपसहः शीतव्यायामसंसहः।
        समपक्ता समजरः सममांसचयो मतः॥
                     अर्थात- जिस व्यक्ति का मांस धातु समप्रमाण में हो, जिसका शारीरिक गठन समप्रमाण में हो, जिसकी इन्द्रियाँ थकान से रहित सुदृढ़ हों, रोगों का बल जिसको पराजित न कर सके, जिसका व्याधिक्षय समत्व बल बढ़ा हुआ हो, जिसका शरीर भूख, प्यास, धूप, शक्ति को सहन कर सके, जिसका शरीर व्यायाम को सहन कर सके , जिसकी पाचनशक्ति (जठराग्नि) सम़ावस्थ़ा में क़ार्य करती हो, निश्चित कालानुसार ही जिसका बुढ़ापा आये, जिसमें मांसादि की चय-उपचय क्रियाएँ सम़ान होती हों - ऐसे १० लक्षणो लक्षणों व़ाले व्यक्ति को आचार्य चरक ने स्वस्थ माना है।

काश्यपसंहिता के अनुसार आरोग्य के लक्षण-
        ◆ अन्नाभिलाषो भुक्तस्य परिपाकः सुखेन च ।
             सृष्टविण्मूत्रवातत्वं शरीरस्य च लाघवम् ॥
             सुप्रसन्नेन्द्रियत्वं च सुखस्वप्न प्रबोधनम् ।
            बलवर्णायुषां लाभः सौमनस्यं समाग्निता ॥
          विद्यात् आरोग्यलिंङ्गानि विपरीते विपर्ययम् । -

                अर्थात -भोजन करने की इच्छा, अर्थात भूख समय पर लगती हो, भोजन ठीक से पचता हो, मलमूत्र और वायु के निष्कासन उचित रूप से होते हों, शरीर में हलकापन एवं स्फूर्ति रहती हो, इन्द्रियाँ प्रसन्न रहतीं हों, मन की सदा प्रसन्न स्थिति हो, सुखपूर्वक रात्रि में शयन करता हो, सुखपूर्वक ब्रह्ममुहूर्त में जागता हो; बल, वर्ण एवं आयु का लाभ मिलता हो, जिसकी पाचक-अग्नि न अधिक हो न कम, उक्त लक्षण हो तो व्यक्ति निरोगी है , अन्यथा रोगी है।
                स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में पंच महाभूत, आयु, बल एवं प्रकृति के अनुसार योग्य मात्रा में रहते हैं। इससे पाचन क्रिया ठीक प्रकार से कार्य करती है। आहार का पाचन होता है और रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सातों धातुओं का निर्माण ठीक प्रकार से होता है। इससे मल, मूत्र और स्वेद का निर्हरण भी ठीक प्रकार से होता है।

स्वास्थ्य की रक्षा करने के उपाय बताते हुए आयुर्वेद कहता है- त्रय उपस्तम्भा: आहार: स्वप्नो ब्रह्मचर्यमिति (चरक संहिता सूत्र. 11/35)
      अर्थात् - शरीर और स्वास्थ्य को स्थिर, सुदृढ़ और उत्तम बनाये रखने के लिए आहार, स्वप्न (निद्रा) और ब्रह्मचर्य - ये तीन उपस्तम्भ हैं। ‘उप’ यानी सहायक और ‘स्तम्भ’ यानी खम्भा। इन तीनों उप स्तम्भों का यथा विधि सेवन करने से ही शरीर और स्वास्थ्य की रक्षा होती है।
◆स्वास्थ्य का महत्व 
स्वस्थ रहना सबसे बड़ा सुख है। कहावत भी है- 'पहला सुख निरोगी काया'। कोई आदमी तभी अपने जीवन का पूरा आनन्द उठा सकता है, जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहे। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। इसलिए मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी शारीरिक स्वास्थ्य अनिवार्य है। ऋषियों ने कहा है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्‌' अर्थात्‌ यह शरीर ही धर्म का श्रेष्ठ साधन है। यदि हम धर्म में विश्वास रखते हैं और स्वयं को धार्मिक कहते हैं, तो अपने शरीर को स्वस्थ रखना हमारा पहला कर्तव्य है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं है, तो जीवन भारस्वरूप हो जाता है।
एक विदेशी विद्वान्‌ डॉ. बेनेडिक्ट जस्ट ने कहा है- 'उत्तम स्वास्थ्य वह अनमोल रत्न है, जिसका मूल्य तब ज्ञात होता है, जब वह खो जाता है।
एक शायर के शब्दों में- 'कद्रे-सेहत मरीज से पूछो, तन्दुरुस्ती हजार नियामत है।'
   
◆"मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक"◆
                     एक व्यक्ति अपने जीवनकाल के दौरान कई अनुभव करता है , जो सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से अपने स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक का अनुमान एक दर्जन से अधिक है। मनुष्य के आनुवांशिक और जैविक विशेषताओं के अतिरिक्त, यह पर्यावरण, सामाजिक और शारीरिक कारकों से सीधे प्रभावित होता है। इससे न केवल मानव स्वास्थ्य पर ही प्रभावित होता है, बल्कि उसके जीवन की अवधि भी प्रभावित होता है ।
                     कई कारक एक साथ मिलकर व्यक्तियों और समुदायों के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। लोग स्वस्थ हैं या नहीं, उनकी परिस्थितियों और वातावरण से निर्धारित होता है। बहुत हद तक, ऐसे कारक जहां हम रहते हैं, हमारे पर्यावरण की स्थिति, आनुवांशिकी, हमारी आय और शिक्षा का स्तर, और दोस्तों और परिवार के साथ हमारे संबंध सभी स्वास्थ्य पर काफी प्रभाव डालते हैं, जबकि अधिक माना जाने वाले कारक जैसे कि पहुंच और स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं के उपयोग में अक्सर प्रभाव कम होता है।

स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक ;

1. आनुवंशिकता

2. पर्यावरण

3.  भौतिक

4.  रासायनिक

3. शिक्षा

4. जीवन शैली,

5. सामाजिक - आर्थिक स्थिति आदि।


                              
भौतिक =  हमारा पर्यावरण , सभी प्रकार के प्रदूषण  इनका स्वास्थ्य की गिरावट से सीधा संबंध है, और इसके परिणामस्वरूप यह हमेशा बना रहता है, और एक तत्काल मुद्दा रहेगा
सबसे संभावित कारक जो रासायनिक विषाक्तता या प्रदूषण के लिए सम्मिलित उत्पादन संयंत्र हैं जो कचरे को वातावरण, जमीन और पानी में फेंक देते हैं। तथा जो हानिकारक पदार्थ वायुमंडल में प्रवेश करते हैं, सभी का एक व्यक्ति पर सीधा प्रभाव पड़ सकता है,

शारीरिक कारक
मुख्य शारीरिक कारक जो नकारात्मक रूप से किसी व्यक्ति को प्रभावित करते हैं, शोर, विद्युत चुम्बकीय विकिरण, कंपन, विद्युत प्रवाह आदि ।

हम प्रत्येक नकारात्मक प्रकार के अलग-अलग प्रभावों का विश्लेषण करेंगे।
शोर एक आवाज़ और ध्वनियों का जटिल समूह है शरीर में गड़बड़ी या बेचैनी का कारण बनता है, और कुछ मामलों में सुनने के अंगों को भी नुकसान पहुंचता है। इसलिए 35 (डेसिबल) डीबी का एक शोर अनिद्रा पैदा कर सकता है, 60 डीबी का शोर तंत्रिका तंत्र को परेशान कर सकता है, 90 डीबी की आवाज सुनवाई का नुकसान, स्थिति की अवसाद, या, इसके विपरीत, तंत्रिका तंत्र उत्तेजना की ओर जाता है। 110 डीबी से अधिक शोर नशा का कारण बन सकता है, 
विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र या रेडियो तरंगों के लगातार संपर्क में तंत्रिका या अंतःस्रावी तंत्र में परिवर्तन हो सकता है।

आनुवांशिक कारक
एक नियम के रूप में जहरीले या प्रदूषणकारी पदार्थों 
का आबादी की पिछली पीढ़ियों पर प्रभाव होता है जो अंततः वंश के वंशानुगत रोगों में परिणत हो सकता है, और इसके परिणामस्वरूप - आबादी के कुछ हिस्सों की कम जीवनप्रत्याशा या कुछ बीमारियां हो सकती है ।

स्वास्थ्य व्यवस्था
कई मामलों में सब कुछ विकास पर निर्भर करता है ,एक विशेष देश में स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा अच्छा है। इस वजह से सीधे आबादी के स्वास्थ्य और उनके जीवन की अवधि भी अच्छी होती हैं ।
मानव स्वास्थ्य का निर्धारण करने वाले कारक, इस मामले में, महत्वपूर्ण हैं। यह आबादी की सामान्य जागरूकता, 
चिकित्सा संरचनाओं के वित्तपोषण, 
नवीन तकनीकों का विकास और उपचार की विधियों, साथ ही साथ समय पर निदान को ध्यान में रखता है, जो कि सफल होने के लिए तभी संभव हो सकता है जब हेरफेर के लिए महंगे उपकरण हों। 

 ◆ "मानव स्वास्थ्य पर यौगिक अभ्यासो का प्रभाव"◆
                      
              योग का हमारे जीवन में क्या प्रभाव पड़ता है ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। आज से 50 वर्ष पूर्व योग का अध्ययन-अध्यापन ऋषियों तथा महर्षियों का विषय रहा ही माना जाता था, लेकिन आज योग आम लोगों के मानसिक और शारीरिक रोग मिटाने में लाभदाय सिद्ध हो रहा है। स्वस्थ परिवार, स्वस्थ समाज तो स्वस्थ और खुशहाल देश ।
                योग का नियम से और नियमित अभ्यास करने से सबसे पहले हमारे शरीर स्वस्थ बनता है। शरीर के स्वस्थ रहने से मन और मस्तिष्क भी ऊर्जावान बनते हैं। दोनों के सेहतमंद रहने से ही आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है। यह तीनों के स्वास्थ्य तालमेल से ही जीवन में खुशी और सफलता मिलती है। 
        योगासनों के नियमित अभ्यास से मेरूदंड सुदृढ़ बनता है, जिससे शिराओं और धमनियों को आराम मिलता है। शरीर के सभी अंग-प्रत्यंग सुचारु रूप से कार्य करते हैं। प्राणायाम द्वारा प्राणवायु शरीर के अणु-अणु तक पहुंच जाती है, जिससे अनावश्यक एवं हानिप्रद द्रव्य नष्ट होते हैं, विषांश निर्वासित होते हैं- जिससे सुखद नींद अपने समय पर अपने-आप आने लगती है। प्राणायाम और ध्यान से मस्तिष्क आम लोगों की अपेक्षा कहीं ज्यादा क्रियाशील और शक्तिशाली बनता है।
योग से जहां शरीर की ऊर्जा जाग्रत होती है वहीं हमारे मस्तिष्क के अंतरिम भाग में छिपी रहस्यमय शक्तियों का उदय होता है। जीवन में सफलता के लिए शरीर की सकारात्मक ऊर्जा और मस्तिष्क की शक्ति की जरूरत होती है। यह सिर्फ योग से ही मिल सकती है अन्य किसी कसरत से नहीं।
                     योग करते रहना का प्रभाव यह होता है कि शरीर, मन और ‍मस्तिष्क के ऊर्जावान बनने के साथ ही आपकी सोच बदलती है। सोच के बदलने से आपका जीवन भी बदलने लगता है। योग से सकारात्मक सोच का विकास होता है।
आदत बदलना जरूरी : योग द्वारा सच्चा स्वास्थ्य प्राप्त करना बिलकुल सरल है। अच्छा स्वास्थ्य हर व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। रोग और शोक तो केवल प्राकृतिक नियमों के उल्लंघन, अज्ञान तथा असावधानी के कारण होते हैं। खुशी और स्वास्थ्य के नियम बिलकुल सरल तथा सहज हैं। केवल अपनी कुछ गलत आदतों को बदलकर योग को अपनी आदत बनाएं।

यदि आप योग सीखना चाहते हैं तो -योग के सभी अंगों को धीरे-धीरे सीखें। शुरुआत अंग संचालन से करते हैं और फिर धीरे-धीरे यम, नियम साधते हुए आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार व धारणा साधने की सोचते हैं। इस बीच उसे ध्यान, बंध, मुद्रा और क्रियाओं को भी सीखना चाहिए। यदि यह सभी सीख लिया तो समझो कि आप योगी बन गए लेकिन 
सामान्य लोग आसन व प्राणायाम ही सीख गये तो बहुत बड़ी बात है।

1. पहला प्रभाव शरीर होता है स्वस्थ
यदि आहार नियम का पालन करते हुए लगातार सूर्य नमस्कार के साथ आप योग के प्रमुख आसन करते रहते हैं तो 4 माह बाद आपका शरीर एकदम लचीला होकर स्वस्थ हो जाएगा। आप हरदम एकदम तरो-ताजा और खुद को युवा महसूस करेंगे। योगासनों के नियमित अभ्यास से मेरूदंड सुदृढ़ बनता है जिससे शिराओं और धमनियों को आराम मिलता है। शरीर के सभी अंग-प्रत्यंग सुचारु रूप से कार्य करते हैं।
योग को अवसाद और चिंता विकार वाले लोगों के लिए काफी प्रभावशाली पाया गया है। सिज़ोफ्रेनिया के इलाज के रूप में भी इसका काफी अच्छा इस्तेमाल और परीक्षण किया गया है।

2. मन रहता है हमेशा प्रसन्न
योग करते रहने से मन में कभी भी उदासी, खिन्नता और क्रोध नहीं रहता है। मन हमेशा प्रसन्नचित्त रहता है जिसके चलते आपके आसपास एक खुशनुमा माहौल बन जाता है। आप जीवन में किसी भी विपरीत परिस्थिति से हताश या निराश नहीं होंगे।

3. विचार हो जाते हैं परिष्कृत 
मस्तिष्क में किसी भी प्रकार का द्वंद्व और विकार नहीं रहता है। व्यक्ति की सोच बहुत ही विस्तृत होकर परिष्कृत हो जाती है। परिष्कृत का अर्थ साफ-सुथरी व स्पष्ट। ऐसे में व्यक्ति की बुद्धि बहुत तीक्ष्ण हो जाती है तथावह जो भी बोलता है, सोच-समझकर ही बोलता है। भावनाओं में बहकर नहीं बोलता है। योग करते रहने का प्रभाव यह होता है कि शरीर, मन और मस्तिष्क के ऊर्जावान बनने के साथ ही आपकी सोच बदलती है। सोच के बदलने से आपका जीवन भी बदलने लगता है। योग से सकारात्मक सोच का विकास होता है।

4. मिट जाते हैं मानसिक रोग
यदि किसी भी प्रकार का मानसिक रोग है तो वह मिट जाएगा, जैसे चिंता, घबराहट, बेचैनी, अवसाद, शोक, शंकालु प्रवृत्ति, नकारात्मकता, द्वंद्व या भ्रम आदि। एक स्वस्थ मस्तिष्क ही खुशहाल जीवन और उज्ज्वल भविष्य की रचना कर सकता है। योग से जहां शरीर की ऊर्जा जाग्रत होती है, वहीं हमारे मस्तिष्क के अंतरिम भाग में छिपी रहस्यमय शक्तियों का उदय होता है। जीवन में सफलता के लिए शरीर की सकारात्मक ऊर्जा और मस्तिष्क की शक्ति की जरूरत होती है। यह सिर्फ योग से ही मिल सकती है, अन्य किसी कसरत से नहीं।

6. बढ़ती है कार्यशीलता
लगातार योग करते रहने से व्यक्ति में कार्यशीलता बढ़ जाती है और वह अपने जीवन के लक्ष्य जल्द से जल्द पूर्ण करने की ओर फोकस कर देता है। मान लो यदि हमारा जीवनकाल 70-75 वर्ष है तो उसमें से भी शायद 20-25 वर्ष ही हमारे जीवन के कार्यशील वर्ष होंगे। उन कार्यशील वर्षों में भी यदि हम अपने स्वास्थ्य और जीवन की स्थिरता को लेकर चिंतित हैं तो फिर कार्य कब करेंगे? जबकि कर्म से ही जीवन में धन, खुशी और सफलता मिलती है।

7. बदल जाता है व्यक्तित्व
योग करते रहने से व्यक्ति का व्यक्तित्व और चरित्र बदल जाता है। वह अपने भीतर से नकारात्मकता और बुरी आदतों को बाहर निकाल देता है। 2 तरह के लोग होते हैं- अंतर्मुखी और बहिर्मुखी। लेकिन योग करते रहने से व्यक्ति दोनों के बीच संतुलन स्थापित करना सीख जाता है। योगी व्यक्ति का व्यक्तित्व अलग ही होता है। भीड़ में उसकी अलग ही पहचान बनती है। वह सबसे अलग ही नजर आता है।

8. आती है अच्छी नींद
प्राणायाम द्वारा प्राणवायु शरीर के अणु-अणु तक पहुंच जाती है जिससे अनावश्यक एवं हानिप्रद द्रव्य नष्ट होते हैं, विषांश निर्वासित होते हैं जिससे सुखद नींद अपने समय पर अपने आप आने लगती है। प्राणायाम और से मस्तिष्क आम लोगों की अपेक्षा कहीं ज्यादा क्रियाशील और शक्तिशाली बनता है।

9. आदत से मिलती है मुक्ति
लगातार योग करते रहने से आपके जीवन में हर तरह की आदतों से आपको मुक्ति मिल जाती है। कई लोगों में देर से उठने और देर से सोने की आदत होती है। अनियमित रूप से भोजन करने और शौच जाने की आदत होती है। इसी तरह कुछ तो भी बोलने, सोचने, समझने, सुनने की आदत भी होती है। योग से व्यक्ति हर तरह की आदतों से मुक्त होकर जीवन को एक सुंदर शैली और अनुशासन में ढाल लेता है।
  
                   आपको यह जानकर हैरानी होगी कि जिस तरह हमें बचपन से ही खाने की आदत है, उसी तरह हमें जन्म लेने की भी आदत हो जाती है। आदत के चक्र को समझना जरूरी है। क्रोध करने, नफरत करने या प्यार करने की भी आदत हो जाती है। आदतमुक्त जीवन क्या होता है? यह जानना बहुत जरूरी है।


10. योग से पाता है व्यक्ति सिद्धि
यदि व्यक्ति लगातार योग कर रहा है और वह योग के यम और नियम का पालन करते हुए योग की हर तरह की विद्या को फॉलो कर रहा है तो यह तय है कि उसके मस्तिष्क में सिद्धियों का वास होने लगेगा। मन और मस्तिष्‍क इतना तीक्ष्ण हो जाता है कि वह सभी हदों को पार करके इधर माध्यम के संपर्क में आ जाता है। वह नींद में भी जागा हुआ होता है। बस यहीं से सिद्धियों की शुरुआत होती है। ऐसा साक्षीत्व योग से घटित होने लगता है।
                                                                    
                                           योग एक बहुत ही उपयोगी अभ्यास है जिसे करना बहुत आसान है और यह कुछ गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं, जो आज के जीवन शैली में सामान्य हैं, से भी छुटकारा पाने में मदद करता है। योग करने वाला व्यक्ति सात्विक व अहिंसक प्रवृति से युक्त होता है. अर्थात राजसिक, तामसिक व हिंसक सम्रद्धि में विश्वास नही करता है.

      ★ "शारिरिक स्वास्थ्य पर योग का प्रत्यक्ष प्रभाव"

मांसपेशियों के लचीलेपन में सुधार

शरीर के आसन और एलाइनमेंट को ठीक करता है

बेहतर पाचन तंत्र प्रदान करता है

आंतरिक अंग मजबूत करता है

अस्थमा का इलाज करता है

मधुमेह का इलाज करता है

दिल संबंधी समस्याओं का इलाज करने में मदद करता है

त्वचा के चमकने में मदद करता है

शक्ति और सहनशक्ति को बढ़ावा देता है

एकाग्रता में सुधार

मन और विचार नियंत्रण में मदद करता है

चिंता, तनाव और अवसाद पर काबू पाने के लिए मन शांत रखता है

तनाव कम करने में मदद करता है

रक्त परिसंचरण और मांसपेशियों के विश्राम में मदद करता है

वज़न घटाना

चोट से संरक्षण करता है

ये सब योग के लाभ हैं। योग स्वास्थ्य और आत्म-चिकित्सा के प्रति आपके प्राकृतिक प्रवृत्ति पर ध्यान केंद्रित करता है।

योग सत्र में मुख्य रूप से व्यायाम, ध्यान और योग आसन शामिल होते हैं जो विभिन्न मांसपेशियों को मजबूत करते हैं। दवाओं, जो हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, से बचने का यह एक अच्छा विकल्प है। योग एक चमत्कार है और एक बार पालन करने पर, यह आपको पूरे जीवन का मार्गदर्शन करेगा। प्रति दिन 20-30 मिनट योग शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य के बीच संतुलन को बढ़ावा देकर लंबे समय में आपके जीवन को बदल सकता है।

एक व्यक्ति के मानसिक कल्याण में सुधार करता है। नियमित अभ्यास मानसिक स्पष्टता और शांति बनाता है जिससे मन को आराम मिलता है।

 ★कुछ सरल आसनों के लाभ इस प्रकार हैं-

पद्मासान – अतिरिक्‍त वसा समाप्‍त, शरीर का वजन संतुलित, ज्ञान मुद्रा में ईश्‍वरीय ध्‍यान, जंघाओं में लचक,आलस्‍य और कब्‍ज़ से  मुक्ति, पाचन-शक्ति सुदृढ़

योग मुद्रा – मोटापा दूर होता है, पेट के समस्‍त विकारों से मुक्ति, मेरुदंड सुदृढ़

तुला आसन – शरीर में हल्‍कापन का अनुभव, शरीर लचकदार, संपूर्ण शरीर संतुलित

अर्द्ध चन्‍द्रासन – पाचनतंत्र सुचारू रूपेण कार्यरत, पेट के विकार दूर, मेरुदंड में लचीलापन, कर्म दर्द से मुक्ति

त्रिकोण आसन – पाचन तंत्र सुदृढ़, यकृत एवं क्‍लोम ग्रंथि सद्प्रभावित

सूर्य नमस्‍कार – 12 विभिन्‍न मुद्राओं के अनेकानेक लाभ होते हैं। शरीर का प्रत्‍येक बाह्य एवं आतंरिक अंग-प्रत्‍यंग सद्प्रभावित, मेरुदंड सुदृढ़, कमद लचकदार, पाचन तंत्र एवं नाड़ी संस्‍थान सशक्‍त, निम्‍न रक्‍तचाप से मुक्ति

शव-आसन – पूर्ण विश्राम की स्थिति, तनाव मुक्ति, मन शांत, आनंद का अनुभव, थकावट दूर, उच्‍च रक्‍तचाप से मुक्ति

ताड़ आसन – आलस्‍य से मुक्ति, शरीर में स्‍फूर्ति, बच्‍चों की ऊंचाई बढ़ाने में सहायक, नाभि का अपने स्‍थान पर रहना, रक्‍त संचरण सुचारू, कमर एवं पीठ दर्द से मुक्ति, मेरुदंड, घुटनों, एडि़यों, नितंबों, पेट, कंधों, हाथों को सशक्‍त होना

नौका आसन- मेरूदण्‍ड, कंधों, पीठ, हाथ पैरों में लचक, स्‍फूर्तिदायक, मोटापे से मुक्‍ति

कमर चक्र आसन - कमर में लचक, मोटापे से मुक्‍ति, हाथ पैरों में स्‍फूर्ति

जानुशिरासन - गुप्‍तांगों के पास रक्‍त भ्रमण, टांगों के दर्द दूर, जोड़ों के दर्द में राहत

पश्‍चिमोतानासन -  हाथों और टांगों में शक्‍ति, मेरूदण्‍ड लचीला, कंधे मजबूत, पाचन तंत्रसशक्‍त, अच्‍छी भूख का अनुभव, मोटापे से मुक्‍ति, शरीर लचकदार

कोण आसन - ग्रीवा सृजन में लाभदायक, कमर में लचक, हाथ पैर, कंधे  सशक्‍त,कब्‍ज से  मुक्‍ति

गौमुख-आसन - कंधे और घुटने सशक्‍त, स्‍नायुमण्‍डल सुदृढ़़, मानसिक संतुलन, मेरूदण्‍ड सुदृढ़

वज्र आसन  - सब आसनों के लिए पेट खाली होना चाहिए। लेकिन इस आसन को भोजन करने के पश्‍चात करने से भी बहुत लाभ पाचन तंत्र सुदृढ़ मेरूदण्‍ड सीधी कमर एवं कंधों के दर्द दूर, मानसिक संतुलन, ईश्‍वर ध्‍यान में मन

ऊष्‍ट आसन - विचार प्रक्रिया में स्‍थिरता, मानशांत में लाभकारी का नियंत्रण, छाती की मांसपेशियां सशक्‍त, मेरुदण्‍ड  में लचीनालपन, अतिरिक्‍त वसा दूर पाचन तंत्र सदप्रभावित फेफड़ों की क्रियाशीलता में बढोतरी

सुप्‍त वज्रावसन- घुटनों कंधों एवं कमर में दर्द नहीं नाभि अपने स्‍थान पर, गुदों की क्रियाशीलता में बढ़ोतरी,मानसिक  संतुलन, मोटापे से मुक्‍ति

शशांक आसन - नाड़ी संस्‍थान सुदृढ़, विश्राम, दया रोग में लाभदायक, मनशांत, कोध्र, ईर्ष्‍या एवं अहंकार का त्‍याग, ईश्‍वर के प्रति समपर्ण

शिथिल आसन - विश्राम, गहरी निद्रा चिन्‍तारहित मन तनाव से मुक्‍ति

सर्प आसन - मोटापे को दूर करता है, पाचन तंत्र सुदृढ़ अच्‍छी भूख का अनुभव, शरीर लचकदार

भुजंग आसन - गर्दन और मेरूदण्‍ड सुदृढ़ एवं लचकदार, गुर्दों, यकृत गर्भाशय, पेट फेफडों, हद्य एवं थाइरोइड के कार्यों में लाभदायक, पीठ के दर्द दूर, शरीर में लचक, गला में लाभदायक

शलभ आसन - मोटापे से मुक्‍ति, उच्‍च रक्‍तचाप एवं हदृय रोग से बचा, मेरूदण्‍ड सुदृढ़, स्‍नायुमंडल सशक्‍त, फेफड़ों की क्रियाशीलता में वृद्धि

धनुर आसन - गुर्दों, पीठ एवं नितंबों को सशक्‍त बनाता है। चयापचय एवं प्रण शक्‍ति की वृद्धिमेरूदण्‍ड सुदृढ़ एवं लचकदार, फेफड़े हदय गुर्दे, यकृत, आंतें, प्‍लीहा और पेट सभी लाभान्‍वित मुखमंडल पर तेजस्‍व पाचनतंत्र सक्रिय अतिरिक्‍त वसा से मुक्‍ति

हल आसन - नाड़ी संस्‍थान सशक्‍त, मेरुदण्‍ड लचकदार,  थाइरोइड ग्रंथि लाभान्‍वित, मोटापे में  कमी, रक्‍त संचरण सुचारू

उप आसन - पाचन तंत्र सुदृढ़ मोटापे से मुक्‍ति हाथ-पैर सशक्‍त, नाभि अपने स्‍थान पर स्‍नायु तंत्र सशक्‍त

मकर आसन - गुर्दों, यकृत एवं आंतों को सशक्‍त बनाता है, अपच एवं कब्‍ज दूर, टांगों और पीठ के कड़ेपन को दूर करता है और मेरूदण्‍ड की लचक में वृद्धि करता है, पीठ को आराम, घुटने, नितंब एवं मेरूदण्‍ड सशक्‍त डिस्क स्लिप में लाभदायक, पेट के समस्‍त रोग दूर, मोटापे में कमी, उच्‍च रक्‍तचाप एवं हदय रोग से मुक्‍ति, नाड़ी संस्‍थान प्रभावित

उदर-पवन मुक्‍तासन – हृदय एवं फेफड़ें सशक्‍त, गैस और अम्‍लता से मुक्ति, पेट के समस्‍त  रोग दूर,रक्‍त संचरण, गर्दन में लचक

सर्वांग आसन – थाइरोइड और पितुनारी ग्लैंड्स की क्रियाशीलता में वृद्धि, थकावट दूर, उदासी से मुक्ति, गर्दन,नेत्रों, कानों, फेफड़ों के में लाभकारी, गर्दन एवं सिर को रक्‍त आपूर्ति, मस्तिक क्रियाशीलता में वृद्धि,मेरुदंड  लचकदार ।

षट्कर्म -
(अर्थात् 'छः कर्म') हठयोग में बतायी गयी छः क्रियाएँ हैं। (नेति, धौति, नौलि, बस्ति, कपालभाति, त्राटक )
षट्कर्म को शुद्धिक्रिया भी कहते हैं
"षट्कर्मणा शोधनं च-"
षटकर्म द्वारा सम्पूर्ण शरीर की शुद्धि होती है 
षट्कर्म के बहुत सारे लाभ हैं। इसके कुछ महत्वपूर्ण फायदे का यहां जिक्र किया जा रहा है।

षट्कर्म  या शोधन योग क्रिया एक ऐसी योगाभ्यास है जो शरीर को शुद्ध करने के में अहम् भूमिका निभाती है।

हठयोग के अनुसार शुद्धि क्रिया योग शरीर में एकत्र हुए विकारों, अशुद्धियों एवं विषैले तत्वों को दूर कर शरीर को भीतर से स्वच्छ करती है।
उच्चतर योग साधना की दिशा में यह एक पहला चरण है।
शुद्धिकरण योग शरीर, मस्तिष्क एवं चेतना पर पूर्ण नियंत्रण का भास देता है।

शोधन क्रियाएं स्वच्छ करने की क्रियाओं और तकनीकों की बात करता है, जिनसे शरीर भीतर से स्वच्छ होता है।

रोगों, विकारों तथा अशुद्धियों को शरीर से दूर करने के लिए पूरे शरीर के पूर्ण शुद्धिकरण की प्रक्रिया आवश्यक है। जहाँ षट्कर्म अहम भूमिका निभाता है।

जब शरीर में अत्यधिक विकार हो अथवा शरीर में वात, पित्त तथा कफ का असंतुलन हो तो प्राणायाम  और योगासन से पूर्व षट्कर्म करना चाहिए।

प्राणायाम साधना आरंभ करने से पूर्व सबसे पहले नाड़ी शुद्ध होनी चाहिए जो षट्कर्म द्वारा करनी चाहिए।

जब शरीर शुद्ध होगा तो रासायनिक घटकों का अनुपात संतुलित रहेगा। इससे मस्तिष्क के कामकाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और शरीर तथा मस्तिष्क को स्वस्थ रखने में सहायता मिलेगी।


        ■"मानव स्वास्थ्य पर षट्कर्म का प्रभाव"

                     षट्कर्म की छह प्रमुख क्रियाओं में..
★धौति (कुंजल एवं वस्त्रधौति) क्रिया संपूर्ण पाचन का शोधन करती है और साथ ही साथ यह अतिरिक्त पित्त, कफ, विष को दूर करती है तथा शरीर के प्राकृतिक संतुलन को वापस लाती है।

★वस्ति, शंखप्रक्षालन तथा मूलशोधन से आंतें पूरी तरह स्वच्छ हो जाती हैं, पुराना मल एवं कृमि दूर हो जाते हैं, पाचन विकारों का उपचार होता है।

★नेति क्रिया नियमित रूप से करने पर कान, नासिका एवं कंठ क्षेत्र से गंदगी निकालने की प्रणाली ठीक से काम करती है तथा यह सर्दी एवं कफ, एलर्जिक राइनिटिस, ज्वर, टॉन्सिलाइटिस आदि दूर करने में सहायक होती है। इससे अवसाद, माइग्रेन, मिर्गी एवं उन्माद में यह लाभदायक होती है।

★नौली क्रिया उदर की पेशियों, तंत्रिकाओं, आंतों, प्रजनन, उत्सर्जन एवं मूत्र संबंधी अंगों को ठीक करती है। अपच, अम्लता, वायु विकार, अवसाद एवं भावनात्मक समस्याओं से ग्रस्त व्यक्ति के लिए लाभदायक है।

★त्राटक नेत्रों की पेशियों, एकाग्रता तथा मेमोरी के लिए लाभप्रद होती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव मस्तिष्क पर होता है।

★कपालभाति बीमारियों से दूर रखने के लिए रामबाण माना जाता है।  यह बलगम, पित्त एवं जल जनित रोगों को नष्ट करती है। यह सिर का शोधन करती है और फेफड़ों एवं कोशिकाओं से सामान्य श्वसन क्रिया की तुलना में अधिक कार्बन डाईऑक्साइड निकालती है। कहा जाता है कि कपालभाति प्रायः हर रोगों का इलाज है।

        ★"योग रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत बनाता है" ।

                 वर्तमान के समय कोरोना वायरस (covid-19) के घातक आक्रमण और संक्रमण से संक्रमित होने पर प्राण रक्षा के लिए मजबूत रोग प्रतिरोधक क्षमता एक सशक्त साधन (हथियार) बन गया है ।। कोरोना से बचने के लिए हम सभी को अपने घर पर ही प्राणायाम व योगिक क्रियाओं का अभ्यास करना चाहिए। हमे प्रतिदिन एक घंटा योग  अवश्य करना चाहिए। इन क्रियाओं में मुख्यत: भस्त्रिका, कपालभाति, अनुलोम विलोम, उज्जाई, सूर्यनमस्कार, भुजंगासन, हलासन आदि योगिक क्रियाओं के प्रयोग तथा अच्छे खान पान से हम अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को सशक्त बना सकते हैं । आयुष मंत्रालय की सलाह के अनुसार प्रतिदिन कम से कम 30 मिनट योगासन, प्राणायाम एवं ध्यान करें।

        ★योग को (आदत) दिनचर्या का हिस्सा बनाएं ।
                      योग के फायदों के बारे में जानते हुए भी हम इसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा नहीं बना पाते। कुछ समय की कमी को इसकी वजह मानते हैं, जबकि सच यह है कि इसके लिए हर रोज 10 से 15 मिनट निकालना ही काफी है ।  
             समय सुनिश्चित करें ऐसा कतई जरूरी नहीं कि योग सुबह ही किया जाए। आप शाम को भी इसे कर सकते हैं। कोशिश सिर्फ यह करें कि रोजाना एक नियत समय पर ही इसे करें। इससे आप एक अनुशासित तरीके से अपनी आदत बना पाएंगे। बस इतना ध्यान रखें कि उस समय खाली पेट हों। खाने के तुरंत बाद आसन ना करें।।

yog ayurveda . आयुर्वेद का परिचय

 

 आयुर्वेद परिभाषा एवं परिचय

आयुर्वेदयति , बोधयति इति आयुर्वेदः।

                             अर्थात = जो शास्त्र (विज्ञान) आयु (जीवन) का ज्ञान कराता है उसे आयुर्वेद कहते हैं।

                                       शब्द आयुर्वेद दो संस्कृत शब्दों ‘आयुष’ जिसका अर्थ जीवन है तथा ‘वेद’ जिसका अर्थ 'विज्ञान' है, से मिलकर बना है’ अतः इसका शाब्दिक अर्थ है 'जीवन का विज्ञान' | आयुर्वेद, भारतीय आयुर्विज्ञान है। आयुर्विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है। विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। आयुर्वेद भारतीय उपमहाद्वीप की एक प्राचीन चिकित्सा प्रणाली है। यह कला विज्ञान और दर्शन   का मिश्रण है। अन्य औषधीय प्रणालियों के विपरीत, आयुर्वेद रोगों के उपचार के बजाय स्वस्थ जीवनशैली पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है। आयुर्वेद की मुख्य अवधारणा यह है कि वह उपचारित होने की प्रक्रिया को व्यक्तिगत बनाता है।

     

                         हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।

                         मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥ - (चरक संहिता 1/40)

 

आयुर्वेद के ग्रन्थ तीन दोषों (त्रिदोष = वात, पित्त, कफ) के असंतुलन को रोग का कारण मानते हैं और समदोष की स्थिति को आरोग्य।

इसी प्रकार सम्पूर्ण आयुर्वैदिक चिकित्सा के आठ अंग माने गए हैं (अष्टांग वैद्यक), ये आठ अंग ये हैं- कायचिकित्सा, शल्यतन्त्र, शालक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, भूतविद्या, रसायनतन्त्र और वाजीकरण।

 ऐसा माना जाता है कि यह प्रणाली भारत में 5000 साल पहले उत्पन्न हुई थी। आयुर्वेद के अनुसार मानव शरीर चार मूल तत्वों से निर्मित है - दोष, धातु, मल और अग्नि। आयुर्वेद में शरीर की इन बुनियादी बातों का अत्यधिक महत्व है। इन्हें ‘मूल सिद्धांत’ या आयुर्वेदिक उपचार के बुनियादी सिद्धांत’ कहा जाता है।

दोष दोषों के तीन महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं वात, पित्त और कफ, जो एक साथ अपचयी और उपचय चयापचय को विनियमित और नियंत्रित करते हैं। इन तीन दोषों का मुख्य कार्य है पूरे शरीर में पचे हुए खाद्य पदार्थों के प्रतिफल को ले जाना, जो शरीर के ऊतकों के निर्माण में मदद करता है। इन दोषों में कोई भी खराबी बीमारी का कारण बनती है।

धातु

जो शरीर को सम्बल देता है, उसके रूप में धातु को परिभाषित कर सकते हैं। शरीर में सात ऊतक प्रणालियां होती हैं। वे हैं रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा तथा शुक्र जो क्रमशः प्लाज्मा, रक्त, वसा ऊतक, अस्थि, अस्थि मज्जा और वीर्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। धातुएं शरीर को केवल बुनियादी पोषण प्रदान करते हैं। और यह मस्तिष्क के विकास और संरचना में मदद करती है।

मल

मल का अर्थ है अपशिष्ट उत्पाद या गंदगी। यह शरीर की तिकड़ी यानी दोषों और धातु में तीसरा है। मल के तीन मुख्य प्रकार हैं, जैसे मल, मूत्र और पसीना। मल मुख्य रूप से शरीर के अपशिष्ट उत्पाद हैं इसलिए व्यक्ति का उचित स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए उनका शरीर से उचित उत्सर्जन आवश्यक है। मल के दो मुख्य पहलू हैं अर्थात मल एवं कित्त। मल शरीर के अपशिष्ट उत्पादों के बारे में है जबकि कित्त धातुओं के अपशिष्ट उत्पादों के बारे में सब कुछ है।

अग्नि

शरीर की चयापचय और पाचन गतिविधि के सभी प्रकार शरीर की जैविक आग की मदद से होती हैं जिसे अग्नि कहा जाता है। अग्नि को आहार नली, यकृत तथा ऊतक कोशिकाओं में मौजूद एंजाइम के रूप में कहा जा सकता है।

आयुर्वेद का इतिहास

 

पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद है। विभिन्न विद्वानों ने इसका रचना काल ५,००० से लाखों वर्ष पूर्व तक का माना है। इस संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक , सुश्रुत , काश्यप आदि मान्य ग्रन्थकार आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है। अतः हम कह सकते हैं कि आयुर्वेद का रचनाकाल ईसा पूर्व ३,००० से ५०,००० वर्ष पहले का है शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनी कुमार माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। अश्विनी कुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनी कुमार, धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश ,भेड, जातुकर्ण , पराशर , सीरपाणि , हारीत), सुश्रुत और चरक।

आयुर्वेद के इतिहास को मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया गया है –

संहिताकाल

संहिताकाल का समय ५वीं शती ई.पू. से ६वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि-चरक, सुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी सं हिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से काययिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्र मुख विशेषता है।

व्याख्याकाल

इसका समय ७वीं शती से लेकर १५वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हड़ की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है।

शोध ग्रन्थ ‘ रसरत्नसमुच्चय भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट्ट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है।

विवृतिकाल

इस काल का समय १४वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदान, ज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है।

स्पष्ट है कि आयुर्वेद की प्राचीनता वेदों के काल से ही सिद्ध है। आधुनिक चिकित्सापद्धति में सामाजिक चिकित्सा पद्धति को एक नई विचारधरा माना जाता है, परन्तु यह कोई नई विचारधारा नहीं अपितु यह उसकी पुनरावृत्ति मात्र है, जिसका उल्लेख 2500 वर्षों से भी पहले आयुर्वेद में किया गया है।

                                                     आयुर्वेद का अवतरण

 

चरक मतानुसार (आत्रेय सम्प्रदाय)

चरक मत के अनुसार, आयुर्वेद का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारो ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भारद्वाज ने प्राप्त किया। च्यवन ऋषि का कार्यकाल भी अश्विनी कुमारों का समकालीन माना गया है। आयुर्वेद के विकास मे ऋषि च्यवन का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान है। फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया। तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन छः शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता का निर्माण किया- अग्निवेश तंत्र का जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरकसंहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार स्तंभ है।

सुश्रुत मतानुसार (धन्वन्तरि सम्प्रदाय)

सुश्रुत संहिता के अनुसार ब्रम्‍हा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान दक्षप्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति नें यह ज्ञान अश्‍वनीं कुमार को दिया, अश्‍वनी कुमार से यह ज्ञान धन्‍वन्‍तरि को दिया, धन्‍वन्‍तरि नें यह ज्ञान औपधेनव और वैतरण और औरभ और पौष्‍कलावत और करवीर्य और गोपुर रक्षित और सुश्रुत को दिया । काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वंतरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत जब आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वंतरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक सहस्र अध्याय- शत सहस्र श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। इस प्रकार धन्वंतरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है।

 

आयुर्वेद का उद्देश्य

                                          आयुर्वेद का उद्देश्य ही स्वस्थ प्राणी के स्वास्थ्य की रक्षा तथा रोगी की रोग से रक्षा है ।

( प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं , आतुरस्यविकारप्रशमनं च ) ।

                                      आयुर्वेद के दो उद्देश्य हैं .. स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा करना रोगी व्यक्तियों के विकारों को दूर कर उन्हें स्वस्थ बनाना स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा करना एवं रोगी हो जाने पर उसके विकार का प्रशमन करना है।   संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो दुःखी होना चाहता हो। सुख की चाह प्रत्येक व्यक्ति की होती है, परन्तु सुखी जीवन उत्तम स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। स्वस्थ और सुखी रहने के लिए यह आवश्यक है कि शरीर में कोई विकार न हो और यदि विकार हो जाए तो उसे शीघ्र दूर कर दिया जाये। ऋषि जानते थे कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति स्वस्थ जीवन से है इसीलिए उन्होंने आत्मा के शुद्धिकरण के साथ शरीर की शुद्धि व स्वास्थ्य पर भी विशेष बल दिया है

 

आयुर्वेद चिकित्सा के लाभ

·         आयुर्वेदिक  चिकित्सा विधि सर्वांगीण है। आयुर्वेदिक चिकित्सा के उपरान्त व्यक्ति की शारीरिक तथा मानसिक दोनों में सुधार होता है।

  • आयुर्वेदिक औषधियों के अधिकांश घटक जड़ी-बूटियों, पौधों, फूलों एवं फलों आदि से प्राप्त की जातीं हैं। अतः यह चिकित्सा प्रकृति के निकट है।
  • व्यावहारिक रूप से आयुर्वेदिक औषधियों के कोई दुष्प्रभाव (साइड-इफेक्ट) देखने को नहीं मिलते।
  • अनेकों जीर्ण रोगों के लिए आयुर्वेद विशेष रूप से प्रभावी है।
  • आयुर्वेद न केवल रोगों की चिकित्सा करता है बल्कि रोगों को रोकता भी है।
  • आयुर्वेद भोजन तथा जीवनशैली में सरल परिवर्तनों के द्वारा रोगों को दूर रखने के उपाय सुझाता है।
  • आयुर्वेदिक औषधियाँ स्वस्थ लोगों के लिए भी उपयोगी हैं।
  • आयुर्वेदिक चिकित्सा अपेक्षाकृत सस्ती है क्योंकि आयुर्वेद चिकित्सा में सरलता से उपलब्ध जड़ी-बूटियाँ एवं मसाले काम में लाये जाते हैं।

शरीर की शुद्घि की प्राचीन आयुर्वेदिक पद्घति है पंचकर्म।

प्रधान कर्म- इस पद्धति में अनेक प्रक्रियाओं का इस्तेमाल किया जाता है। इनकी प्रक्रियाएं इस प्रकार हैं:

वमन- पंचकर्म का पहला कर्म वमन है। कफ प्रधान रोगों को वमन करने वाली औषधियां देकर वमन करवाकर ठीक किया जाता है।

विरेचन- पित्त दोष विरेचन औषधियों के द्वारा विरेचन करवा कर ठीक किया जाता है।

वस्ति- वात दोष को बाहर करने के लिए ये विधि अपनाई जाती है। इसमें गुदा के द्वारा वस्तियंत्र से औषधि को अंदर प्रवेश कराकर बाहर निकाला जाता है।

रक्तमोक्षण- इसमें रक्त खराब हो जाने से होने वाले रोगों से मुक्ति के लिए रक्त को बाहर निकाला जाता है। शिराओं को काटकर या कनखजूरे या लीच चिपका कर अषुद्ध रक्त बाहर निकालने की कोशिश की जाती है।

नस्य- इस चिकित्सा में नाक के छिद्रों से औषधि अंदर डालकर कंठ तथा सिर के दोषों को दूर किया जाता है।

पंचकर्म चिकित्सा के लाभ

शरीर पुष्ट व बलवान होता है।
रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
शरीर की क्रियाओं का संतुलन पुन: लौट आता है।
रक्त शुद्घि से त्वचा कांतिमय होती है।
इंद्रियों और मन को शांति मिलती है।
दीर्घायु प्राप्त होती है और बुढ़ापा देर से आता है।
रक्त संचार बढ़ता है।
मानसिक तनाव में कारगर है।

अतिरिक्त चर्बी को हटाकर वजन कम करता है।
आर्थराइटिस, मधुमेह, तनाव, गठिया, लकवा आदि रोगों में राहत मिलती है।
स्मरण शक्ति बढ़ती है।

आयुर्वेद के आठ विभाग

 

विस्तृत विवेचन, विशेष चिकित्सा तथा सुगमता आदि के लिए आयुर्वेद को आठ भागों (अष्टांग वैद्यक) में विभक्त किया गया है : ये आठ अंग ये हैं-

कायचिकित्सा, शल्यतन्त्र, शालक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, भूतविद्या, रसायनतन्त्र और वाजीकरण।

·         1 कायचिकित्सा

इसमें सामान्य रूप से औषधिप्रयोग द्वारा चिकित्सा की जाती है। प्रधानत: ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह, अतिसार आदि रोगों की चिकित्सा इसके अंतर्गत आती है। शास्त्रकार ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है-

कायचिकित्सानाम सर्वांगसंश्रितानांव्याधीनां ज्वररक्तपित्त-

शोषोन्मादापस्मारकुष्ठमेहातिसारादीनामुपशमनार्थम्‌। (सुश्रुत संहिता १.३)

·         2 शल्यतंत्र

विविध प्रकार के शल्यों को निकालने की विधि एवं अग्नि, क्षार, यंत्र, शस्त्र आदि के प्रयोग द्वारा संपादित चिकित्सा को शल्य चिकित्सा कहते हैं। किसी व्रण में से तृण के हिस्से, लकड़ी के टुकड़े, पत्थर के टुकड़े, धूल, लोहे के खंड, हड्डी, बाल, नाखून, शल्य, अशुद्ध रक्त, पूय, मृतभ्रूण आदि को निकालना तथा यंत्रों एवं शस्त्रों के प्रयोग एवं व्रणों के निदान, तथा उसकी चिकित्सा आदि का समावेश शल्ययंत्र के अंतर्गत किया गया है।

शल्यंनाम विविधतृणकाष्ठपाषाणपांशुलोहलोष्ठस्थिवालनखपूयास्रावद्रष्ट्व्राणां-

तर्गर्भशल्योद्वरणार्थ यंत्रशस्त्रक्षाराग्निप्रणिधान्व्राण विनिश्चयार्थच। (सु.सू. १.१)।

·         3 शालाक्यतंत्र

 गले के ऊपर के अंगों की चिकित्सा में बहुधा 'शलाका' सदृश यंत्रों एवं शस्त्रों का प्रयोग होने से इसे शालाक्यतंत्र कहते हैं। इसके अंतर्गत प्रधानतः मुख, नासिका, नेत्र, कर्ण आदि अंगों में उत्पन्न व्याधियों की चिकित्सा आती है।

शालाक्यं नामऊर्ध्वजन्तुगतानां श्रवण नयन वदन घ्राणादि संश्रितानां व्याधीनामुपशमनार्थम्‌  (सु.सू. १.२)।

·         4 कौमारभृत्य

बच्चों, स्त्रियों विशेषतः गर्भिणी स्त्रियों और विशेष स्त्रीरोग के साथ गर्भविज्ञान का वर्णन इस तंत्र में है।

कौमारभृत्यं नाम कुमारभरण धात्रीक्षीरदोषश् संशोधनार्थं

दुष्टस्तन्यग्रहसमुत्थानां च व्याधीनामुपशमनार्थम्‌॥ (सु.सू. १.५)।

·         5 अगदतंत्र

इसमें विभिन्न स्थावर, जंगम और कृत्रिम विषों एवं उनके लक्षणों तथा चिकित्सा का वर्णन है।

अगदतंत्रं नाम सर्पकीटलतामषिकादिदष्टविष व्यंजनार्थं

विविधविषसंयोगोपशमनार्थं च॥ (सु.सू. १.६)।

·         6 भूतविद्या

इसमें देवाधि ग्रहों द्वारा उत्पन्न हुए विकारों और उसकी चिकित्सा का वर्णन है।

भूतविद्यानाम देवासुरगंधर्वयक्षरक्ष: पितृपिशाचनागग्रहमुपसृष्ट

चेतसांशान्तिकर्म वलिहरणादिग्रहोपशमनार्थम्‌॥ (सु.सू. १.४)।

·         7 रसायनतंत्र

चिरकाल तक वृद्धावस्था के लक्षणों से बचते हुए उत्तम स्वास्थ्य, बल, पौरुष एवं दीर्घायु की प्राप्ति एवं वृद्धावस्था के कारण उत्पन्न हुए विकारों को दूर करने के उपाय इस तंत्र में वर्णित हैं।

रसायनतंत्र नाम वय: स्थापनमायुमेधावलकरं रोगापहरणसमर्थं च। (सु.सू. १.७)।

·         8 वाजीकर

शुक्रधातु की उत्पत्ति, पुष्टता एवं उसमें उत्पन्न दोषों एवं उसके क्षय, वृद्धि आदि कारणों से उत्पन्न लक्षणों की चिकित्सा आदि विषयों के साथ उत्तम स्वस्थ संतोनोत्पत्ति संबंधी ज्ञान का वर्णन इसके अंतर्गत आते हैं।

वाजीकरणतंत्रं नाम अल्पदुष्ट क्षीणविशुष्करेतसामाप्यायन

प्रसादोपचय जनननिमित्तं प्रहर्षं जननार्थंच। (सु.सू. १.८)।

 

वर्तमान समय में आयुर्वेद का महत्‍व

विश्‍व की सबसे प्राचीन चिकित्‍सा प्रणाली आयुर्वेद का महत्‍व आज भी यथावत बना हुआ है।  आजकल हम ऐलोपैथी (आधुनिक चिकित्सा-पद्धति), होम्योपैथी, नैचुरोपैथी (प्राकृतिक चिकित्सा), रेकी, आदि अनेक प्रकार की चिकित्सा-पद्धतियों का प्रयोग करते हैं,  आयुर्वेदिक पद्धति सहस्रों वर्ष़ों से हमारे जीवन में रची बसी हुई है। आयुर्वेद ऐसी प्रायोगिक चिकित्सा पद्धति है जिसे केवल वैद्यों-चिकित्सकों ने ही नहीं, परन्तु सामान्य जनों ने अपने जीवन में, विशेषकर अपने रसोईघरों में आत्मसात कर लिया| और यही कारण है की सदियों बाद ये परंपरा आज भी हमारे रसोई घरों में जीवित है| आयुर्वेद के अनुसार आहार ही औषधि है

                                          हम अपने दैनिक जीवन में देखते-सुनते हैं कि किसी को पेट दर्द होने पर या गैस होने पर अजवायन, हींग आदि लेने को कहा जाता है; खाँसी-जुकाम, गला खराब होने पर कहा जाता है कि ठण्डा पानी न पियो; अदरक, तुलसी की चाय, तुलसी एवं काली मिर्च या शहद और अदरक का रस, अथवा दूध व हल्दी ले लो, आदि। अमुक चीज की प्रकृति ठण्डी है या गर्म, इस प्रकार के सभी निर्देश आयुर्वेद के ही अंग हैं। इस प्रकार हम अपने बुजुर्गों से पीढ़ी दर पीढ़ी घर में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ़ों के औषधीय गुणों के विषय में सीखते चले आ रहे हैं। हमें अपने घर के आँगन अथवा रसोई घर से ही ऐसे अनेक पदार्थ मिल जाते हैं, जिन्हें हम औषधि के रूप में प्रयुक्त कर सकते हैं। इस प्रकार हम इस आयुर्वेदीय पद्धति को अपने जीवन से अलग कर ही नहीं सकते । आयुर्वेद पथ्य या जीवन शैली (भोजन की आदते और दैनिक जीवनचर्या) पर विशेष महत्त्व देता है। मौसम मे बदलाव के आधार पर जीवनशैली को कैसे अनुकूल बनाया जाये इस पर भी आयुर्वेद मार्गदर्शन देता है।

 

                                              आयुर्वेद व्‍यक्ति को यह समझने में सहायता करता है कि वह अपनी शारीरिक संरचना के अनुरूप शरीर, मन और चेतना में संतुलन कैसे बनाएं, क्‍योंकि प्रत्‍येक व्‍यक्ति की शारीरिक संरचना भिन्‍न-भिन्‍न होती हैआयुर्वेद में कहा गया है कि स्‍वास्‍थ्‍य और तंदुरुस्ती, मन, शरीर और आत्‍मा के मध्‍य एक महीन संतुलन पर आधारित है। इसका मुख्य लक्ष्य अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देना है, न कि बीमारियों से लड़ना। लेकिन विशिष्ट स्वास्थ्य समस्याओं का उपचार इससे किया जा सक‍ता है। आयुर्वेद रोकथाम पर विशेष बल देता है, यह एक सुखद जीवन के लिए स्‍वच्‍छ विचार, श्रेष्‍ठ जीवनशैली और जड़ी-बूटियों के उपयोग में संतुलन को प्रोत्साहित करता है।

    

NCERT class 10th Sanskrit Lesson 2 Question answers । संस्कृत पाठ-2 प्रश्नोत्तर ।

 अभ्यास: प्रश्न 1. एकपदेन उतरं लिखत ! (क) बुद्धिमती कुत्र व्याघ्र ददर्श ? (ख) भामिनी कया विमुक्ता ? (ग) सर्वदा सर्वकार्येषु का बलवती ? ...