◆ आयुर्वेद परिभाषा एवं परिचय
आयुर्वेदयति , बोधयति इति आयुर्वेदः।
अर्थात = जो शास्त्र (विज्ञान) आयु (जीवन) का ज्ञान कराता है उसे आयुर्वेद कहते हैं।
शब्द आयुर्वेद दो संस्कृत शब्दों ‘आयुष’ जिसका अर्थ जीवन है तथा ‘वेद’ जिसका अर्थ 'विज्ञान' है, से मिलकर बना है’ अतः इसका शाब्दिक अर्थ है 'जीवन का विज्ञान' | आयुर्वेद, भारतीय आयुर्विज्ञान है। आयुर्विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है। विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। आयुर्वेद भारतीय उपमहाद्वीप की एक प्राचीन चिकित्सा प्रणाली है। यह कला विज्ञान और दर्शन का मिश्रण है। अन्य औषधीय प्रणालियों के विपरीत, आयुर्वेद रोगों के उपचार के बजाय स्वस्थ जीवनशैली पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है। आयुर्वेद की मुख्य अवधारणा यह है कि वह उपचारित होने की प्रक्रिया को व्यक्तिगत बनाता है।
हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥ - (चरक संहिता 1/40)
आयुर्वेद के ग्रन्थ तीन दोषों (त्रिदोष = वात, पित्त, कफ) के असंतुलन को रोग का कारण मानते हैं और समदोष की स्थिति को आरोग्य।
इसी प्रकार सम्पूर्ण आयुर्वैदिक चिकित्सा के आठ अंग माने गए हैं (अष्टांग वैद्यक), ये आठ अंग ये हैं- कायचिकित्सा, शल्यतन्त्र, शालक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, भूतविद्या, रसायनतन्त्र और वाजीकरण।
ऐसा माना जाता है कि यह प्रणाली भारत में 5000 साल पहले उत्पन्न हुई थी। आयुर्वेद के अनुसार मानव शरीर चार मूल तत्वों से निर्मित है - दोष, धातु, मल और अग्नि। आयुर्वेद में शरीर की इन बुनियादी बातों का अत्यधिक महत्व है। इन्हें ‘मूल सिद्धांत’ या आयुर्वेदिक उपचार के बुनियादी सिद्धांत’ कहा जाता है।
दोष दोषों के तीन महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं वात, पित्त और कफ, जो एक साथ अपचयी और उपचय चयापचय को विनियमित और नियंत्रित करते हैं। इन तीन दोषों का मुख्य कार्य है पूरे शरीर में पचे हुए खाद्य पदार्थों के प्रतिफल को ले जाना, जो शरीर के ऊतकों के निर्माण में मदद करता है। इन दोषों में कोई भी खराबी बीमारी का कारण बनती है।
धातु
जो शरीर को सम्बल देता है, उसके रूप में धातु को परिभाषित कर सकते हैं। शरीर में सात ऊतक प्रणालियां होती हैं। वे हैं रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा तथा शुक्र जो क्रमशः प्लाज्मा, रक्त, वसा ऊतक, अस्थि, अस्थि मज्जा और वीर्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। धातुएं शरीर को केवल बुनियादी पोषण प्रदान करते हैं। और यह मस्तिष्क के विकास और संरचना में मदद करती है।
मल
मल का अर्थ है अपशिष्ट उत्पाद या गंदगी। यह शरीर की तिकड़ी यानी दोषों और धातु में तीसरा है। मल के तीन मुख्य प्रकार हैं, जैसे मल, मूत्र और पसीना। मल मुख्य रूप से शरीर के अपशिष्ट उत्पाद हैं इसलिए व्यक्ति का उचित स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए उनका शरीर से उचित उत्सर्जन आवश्यक है। मल के दो मुख्य पहलू हैं अर्थात मल एवं कित्त। मल शरीर के अपशिष्ट उत्पादों के बारे में है जबकि कित्त धातुओं के अपशिष्ट उत्पादों के बारे में सब कुछ है।
अग्नि
शरीर की चयापचय और पाचन गतिविधि के सभी प्रकार शरीर की जैविक आग की मदद से होती हैं जिसे अग्नि कहा जाता है। अग्नि को आहार नली, यकृत तथा ऊतक कोशिकाओं में मौजूद एंजाइम के रूप में कहा जा सकता है।
◆ आयुर्वेद का इतिहास
पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद है। विभिन्न विद्वानों ने इसका रचना काल ५,००० से लाखों वर्ष पूर्व तक का माना है। इस संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक , सुश्रुत , काश्यप आदि मान्य ग्रन्थकार आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है। अतः हम कह सकते हैं कि आयुर्वेद का रचनाकाल ईसा पूर्व ३,००० से ५०,००० वर्ष पहले का है शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनी कुमार माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। अश्विनी कुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनी कुमार, धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश ,भेड, जातुकर्ण , पराशर , सीरपाणि , हारीत), सुश्रुत और चरक।
आयुर्वेद के इतिहास को मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया गया है –
संहिताकाल
संहिताकाल का समय ५वीं शती ई.पू. से ६वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि-चरक, सुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी सं हिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से काययिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्र मुख विशेषता है।
व्याख्याकाल
इसका समय ७वीं शती से लेकर १५वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हड़ की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है।
शोध ग्रन्थ ‘ रसरत्नसमुच्चय’ भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट्ट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है।
विवृतिकाल
इस काल का समय १४वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदान, ज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है।
स्पष्ट है कि आयुर्वेद की प्राचीनता वेदों के काल से ही सिद्ध है। आधुनिक चिकित्सापद्धति में सामाजिक चिकित्सा पद्धति को एक नई विचारधरा माना जाता है, परन्तु यह कोई नई विचारधारा नहीं अपितु यह उसकी पुनरावृत्ति मात्र है, जिसका उल्लेख 2500 वर्षों से भी पहले आयुर्वेद में किया गया है।
◆ आयुर्वेद का अवतरण
चरक मतानुसार (आत्रेय सम्प्रदाय)
चरक मत के अनुसार, आयुर्वेद का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारो ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भारद्वाज ने प्राप्त किया। च्यवन ऋषि का कार्यकाल भी अश्विनी कुमारों का समकालीन माना गया है। आयुर्वेद के विकास मे ऋषि च्यवन का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान है। फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया। तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन छः शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता का निर्माण किया- अग्निवेश तंत्र का जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरकसंहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार स्तंभ है।
सुश्रुत मतानुसार (धन्वन्तरि सम्प्रदाय)
सुश्रुत संहिता के अनुसार ब्रम्हा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान दक्षप्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति नें यह ज्ञान अश्वनीं कुमार को दिया, अश्वनी कुमार से यह ज्ञान धन्वन्तरि को दिया, धन्वन्तरि नें यह ज्ञान औपधेनव और वैतरण और औरभ और पौष्कलावत और करवीर्य और गोपुर रक्षित और सुश्रुत को दिया । काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वंतरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत जब आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वंतरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक सहस्र अध्याय- शत सहस्र श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। इस प्रकार धन्वंतरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है।
◆ आयुर्वेद का उद्देश्य
आयुर्वेद का उद्देश्य ही स्वस्थ प्राणी के स्वास्थ्य की रक्षा तथा रोगी की रोग से रक्षा है ।
( प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं , आतुरस्यविकारप्रशमनं च ) ।
आयुर्वेद के दो उद्देश्य हैं .. स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा करना रोगी व्यक्तियों के विकारों को दूर कर उन्हें स्वस्थ बनाना स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा करना एवं रोगी हो जाने पर उसके विकार का प्रशमन करना है। संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो दुःखी होना चाहता हो। सुख की चाह प्रत्येक व्यक्ति की होती है, परन्तु सुखी जीवन उत्तम स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। स्वस्थ और सुखी रहने के लिए यह आवश्यक है कि शरीर में कोई विकार न हो और यदि विकार हो जाए तो उसे शीघ्र दूर कर दिया जाये। ऋषि जानते थे कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति स्वस्थ जीवन से है इसीलिए उन्होंने आत्मा के शुद्धिकरण के साथ शरीर की शुद्धि व स्वास्थ्य पर भी विशेष बल दिया है ।
◆ आयुर्वेद चिकित्सा के लाभ
· आयुर्वेदिक चिकित्सा विधि सर्वांगीण है। आयुर्वेदिक चिकित्सा के उपरान्त व्यक्ति की शारीरिक तथा मानसिक दोनों में सुधार होता है।
- आयुर्वेदिक औषधियों के अधिकांश घटक जड़ी-बूटियों, पौधों, फूलों एवं फलों आदि से प्राप्त की जातीं हैं। अतः यह चिकित्सा प्रकृति के निकट है।
- व्यावहारिक रूप से आयुर्वेदिक औषधियों के कोई दुष्प्रभाव (साइड-इफेक्ट) देखने को नहीं मिलते।
- अनेकों जीर्ण रोगों के लिए आयुर्वेद विशेष रूप से प्रभावी है।
- आयुर्वेद न केवल रोगों की चिकित्सा करता है बल्कि रोगों को रोकता भी है।
- आयुर्वेद भोजन तथा जीवनशैली में सरल परिवर्तनों के द्वारा रोगों को दूर रखने के उपाय सुझाता है।
- आयुर्वेदिक औषधियाँ स्वस्थ लोगों के लिए भी उपयोगी हैं।
- आयुर्वेदिक चिकित्सा अपेक्षाकृत सस्ती है क्योंकि आयुर्वेद चिकित्सा में सरलता से उपलब्ध जड़ी-बूटियाँ एवं मसाले काम में लाये जाते हैं।
शरीर की शुद्घि की प्राचीन आयुर्वेदिक पद्घति है पंचकर्म।
प्रधान कर्म- इस पद्धति में अनेक प्रक्रियाओं का इस्तेमाल किया जाता है। इनकी प्रक्रियाएं इस प्रकार हैं:
वमन- पंचकर्म का पहला कर्म वमन है। कफ प्रधान रोगों को वमन करने वाली औषधियां देकर वमन करवाकर ठीक किया जाता है।
विरेचन- पित्त दोष विरेचन औषधियों के द्वारा विरेचन करवा कर ठीक किया जाता है।
वस्ति- वात दोष को बाहर करने के लिए ये विधि अपनाई जाती है। इसमें गुदा के द्वारा वस्तियंत्र से औषधि को अंदर प्रवेश कराकर बाहर निकाला जाता है।
रक्तमोक्षण- इसमें रक्त खराब हो जाने से होने वाले रोगों से मुक्ति के लिए रक्त को बाहर निकाला जाता है। शिराओं को काटकर या कनखजूरे या लीच चिपका कर अषुद्ध रक्त बाहर निकालने की कोशिश की जाती है।
नस्य- इस चिकित्सा में नाक के छिद्रों से औषधि अंदर डालकर कंठ तथा सिर के दोषों को दूर किया जाता है।
पंचकर्म चिकित्सा के लाभ
शरीर पुष्ट व
बलवान होता है।
रोग प्रतिरोधक
क्षमता बढ़ती है।
शरीर की क्रियाओं
का संतुलन पुन: लौट आता है।
रक्त शुद्घि से
त्वचा कांतिमय होती है।
इंद्रियों और मन
को शांति मिलती है।
दीर्घायु प्राप्त
होती है और बुढ़ापा देर से आता है।
रक्त संचार बढ़ता
है।
मानसिक तनाव में
कारगर है।
अतिरिक्त चर्बी को
हटाकर वजन कम करता है।
आर्थराइटिस, मधुमेह, तनाव, गठिया, लकवा आदि रोगों
में राहत मिलती है।
स्मरण शक्ति बढ़ती
है।
◆ आयुर्वेद के आठ विभाग
विस्तृत विवेचन, विशेष चिकित्सा तथा सुगमता आदि के लिए आयुर्वेद को आठ भागों (अष्टांग वैद्यक) में विभक्त किया गया है : ये आठ अंग ये हैं-
कायचिकित्सा, शल्यतन्त्र, शालक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, भूतविद्या, रसायनतन्त्र और वाजीकरण।
· 1 कायचिकित्सा
इसमें सामान्य रूप से औषधिप्रयोग द्वारा चिकित्सा की जाती है। प्रधानत: ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह, अतिसार आदि रोगों की चिकित्सा इसके अंतर्गत आती है। शास्त्रकार ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है-
कायचिकित्सानाम सर्वांगसंश्रितानांव्याधीनां ज्वररक्तपित्त-
शोषोन्मादापस्मारकुष्ठमेहातिसारादीनामुपशमनार्थम्। (सुश्रुत संहिता १.३)
· 2 शल्यतंत्र
विविध प्रकार के शल्यों को निकालने की विधि एवं अग्नि, क्षार, यंत्र, शस्त्र आदि के प्रयोग द्वारा संपादित चिकित्सा को शल्य चिकित्सा कहते हैं। किसी व्रण में से तृण के हिस्से, लकड़ी के टुकड़े, पत्थर के टुकड़े, धूल, लोहे के खंड, हड्डी, बाल, नाखून, शल्य, अशुद्ध रक्त, पूय, मृतभ्रूण आदि को निकालना तथा यंत्रों एवं शस्त्रों के प्रयोग एवं व्रणों के निदान, तथा उसकी चिकित्सा आदि का समावेश शल्ययंत्र के अंतर्गत किया गया है।
शल्यंनाम विविधतृणकाष्ठपाषाणपांशुलोहलोष्ठस्थिवालनखपूयास्रावद्रष्ट्व्राणां-
तर्गर्भशल्योद्वरणार्थ यंत्रशस्त्रक्षाराग्निप्रणिधान्व्राण विनिश्चयार्थच। (सु.सू. १.१)।
· 3 शालाक्यतंत्र
गले के ऊपर के अंगों की चिकित्सा में बहुधा 'शलाका' सदृश यंत्रों एवं शस्त्रों का प्रयोग होने से इसे शालाक्यतंत्र कहते हैं। इसके अंतर्गत प्रधानतः मुख, नासिका, नेत्र, कर्ण आदि अंगों में उत्पन्न व्याधियों की चिकित्सा आती है।
शालाक्यं नामऊर्ध्वजन्तुगतानां श्रवण नयन वदन घ्राणादि संश्रितानां व्याधीनामुपशमनार्थम्। (सु.सू. १.२)।
· 4 कौमारभृत्य
बच्चों, स्त्रियों विशेषतः गर्भिणी स्त्रियों और विशेष स्त्रीरोग के साथ गर्भविज्ञान का वर्णन इस तंत्र में है।
कौमारभृत्यं नाम कुमारभरण धात्रीक्षीरदोषश् संशोधनार्थं
दुष्टस्तन्यग्रहसमुत्थानां च व्याधीनामुपशमनार्थम्॥ (सु.सू. १.५)।
· 5 अगदतंत्र
इसमें विभिन्न स्थावर, जंगम और कृत्रिम विषों एवं उनके लक्षणों तथा चिकित्सा का वर्णन है।
अगदतंत्रं नाम सर्पकीटलतामषिकादिदष्टविष व्यंजनार्थं
विविधविषसंयोगोपशमनार्थं च॥ (सु.सू. १.६)।
· 6 भूतविद्या
इसमें देवाधि ग्रहों द्वारा उत्पन्न हुए विकारों और उसकी चिकित्सा का वर्णन है।
भूतविद्यानाम देवासुरगंधर्वयक्षरक्ष: पितृपिशाचनागग्रहमुपसृष्ट
चेतसांशान्तिकर्म वलिहरणादिग्रहोपशमनार्थम्॥ (सु.सू. १.४)।
· 7 रसायनतंत्र
चिरकाल तक वृद्धावस्था के लक्षणों से बचते हुए उत्तम स्वास्थ्य, बल, पौरुष एवं दीर्घायु की प्राप्ति एवं वृद्धावस्था के कारण उत्पन्न हुए विकारों को दूर करने के उपाय इस तंत्र में वर्णित हैं।
रसायनतंत्र नाम वय: स्थापनमायुमेधावलकरं रोगापहरणसमर्थं च। (सु.सू. १.७)।
· 8 वाजीकरण
शुक्रधातु की उत्पत्ति, पुष्टता एवं उसमें उत्पन्न दोषों एवं उसके क्षय, वृद्धि आदि कारणों से उत्पन्न लक्षणों की चिकित्सा आदि विषयों के साथ उत्तम स्वस्थ संतोनोत्पत्ति संबंधी ज्ञान का वर्णन इसके अंतर्गत आते हैं।
वाजीकरणतंत्रं नाम अल्पदुष्ट क्षीणविशुष्करेतसामाप्यायन
प्रसादोपचय जनननिमित्तं प्रहर्षं जननार्थंच। (सु.सू. १.८)।
◆ वर्तमान समय में आयुर्वेद का महत्व
विश्व की सबसे प्राचीन चिकित्सा प्रणाली आयुर्वेद का महत्व आज भी यथावत बना हुआ है। आजकल हम ऐलोपैथी (आधुनिक चिकित्सा-पद्धति), होम्योपैथी, नैचुरोपैथी (प्राकृतिक चिकित्सा), रेकी, आदि अनेक प्रकार की चिकित्सा-पद्धतियों का प्रयोग करते हैं, आयुर्वेदिक पद्धति सहस्रों वर्ष़ों से हमारे जीवन में रची बसी हुई है। आयुर्वेद ऐसी प्रायोगिक चिकित्सा पद्धति है जिसे केवल वैद्यों-चिकित्सकों ने ही नहीं, परन्तु सामान्य जनों ने अपने जीवन में, विशेषकर अपने रसोईघरों में आत्मसात कर लिया| और यही कारण है की सदियों बाद ये परंपरा आज भी हमारे रसोई घरों में जीवित है| आयुर्वेद के अनुसार आहार ही औषधि है
हम अपने दैनिक जीवन में देखते-सुनते हैं कि किसी को पेट दर्द होने पर या गैस होने पर अजवायन, हींग आदि लेने को कहा जाता है; खाँसी-जुकाम, गला खराब होने पर कहा जाता है कि ठण्डा पानी न पियो; अदरक, तुलसी की चाय, तुलसी एवं काली मिर्च या शहद और अदरक का रस, अथवा दूध व हल्दी ले लो, आदि। अमुक चीज की प्रकृति ठण्डी है या गर्म, इस प्रकार के सभी निर्देश आयुर्वेद के ही अंग हैं। इस प्रकार हम अपने बुजुर्गों से पीढ़ी दर पीढ़ी घर में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ़ों के औषधीय गुणों के विषय में सीखते चले आ रहे हैं। हमें अपने घर के आँगन अथवा रसोई घर से ही ऐसे अनेक पदार्थ मिल जाते हैं, जिन्हें हम औषधि के रूप में प्रयुक्त कर सकते हैं। इस प्रकार हम इस आयुर्वेदीय पद्धति को अपने जीवन से अलग कर ही नहीं सकते । आयुर्वेद पथ्य या जीवन शैली (भोजन की आदते और दैनिक जीवनचर्या) पर विशेष महत्त्व देता है। मौसम मे बदलाव के आधार पर जीवनशैली को कैसे अनुकूल बनाया जाये इस पर भी आयुर्वेद मार्गदर्शन देता है।
आयुर्वेद व्यक्ति को यह समझने में सहायता करता है कि वह अपनी शारीरिक संरचना के अनुरूप शरीर, मन और चेतना में संतुलन कैसे बनाएं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक संरचना भिन्न-भिन्न होती हैआयुर्वेद में कहा गया है कि स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती, मन, शरीर और आत्मा के मध्य एक महीन संतुलन पर आधारित है। इसका मुख्य लक्ष्य अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देना है, न कि बीमारियों से लड़ना। लेकिन विशिष्ट स्वास्थ्य समस्याओं का उपचार इससे किया जा सकता है। आयुर्वेद रोकथाम पर विशेष बल देता है, यह एक सुखद जीवन के लिए स्वच्छ विचार, श्रेष्ठ जीवनशैली और जड़ी-बूटियों के उपयोग में संतुलन को प्रोत्साहित करता है।
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